बेवजह देखता रहता हो जो
सामने से आती हुई
एक सुनसान पगडंडी को
बार बार .....
शायद इस उम्मीद से
कि कोई आयेगा....
हर बार उम्मीद की नज़र
घूमती है उस तरफ
तो लौट आती है निराश होकर
और फिर वही
बार बार दोहराना
और फिर देखना उधर
शायद इस बार वो हो ........
तो क्या पागलपन नहीं ये ?
और ... किसी को क्या पड़ी है
कि चल कर आये उस पगडंडी पर
और प्यास भुझा दे
उन आँखों की
कुछ राहत मिले
एक पगले को...
पगडंडी पर सड़क बनानी थी
जिस पर प्यार की गाड़ी चलानी थी
मगर राजनीति के झूटे वादे निकले
सपनों को लूटने के बहाने निकले
उस पगडंडी पर पौधे निकल आये हैं
विलीन हो चुकी पगडंडी जंगल में
मगर वोह पगला अभी भी
उसी उम्मीद भरी नज़र से
बार बार देखता है... ढूंडता है
उस खोई हुए पगडंडी को ......
और इस उम्मीद की हिमाकत तो देखो
टूटती ही नहीं.....
........मोहन सेठी 'इंतज़ार'
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