Friday 27 February 2015

रंग मुहब्बत का ........




तेरे जूड़े में मोतिये की वेणी सजा के
मौसम-ए-इश्क खुशनुमा बना दूँ तो ...?

क्यों बहकते हो इस तरहें मय के प्यालों से
अपने हुस्न का जादू तुझ पे चला दूँ तो...?

दुनियाँ में मुझ सा तेरा दीवाना ना होगा और
मैं अपने दिल को चीर के तुझे दिखा दूँ तो...?

तेरे दिल में सोये एहसास धधक उठेंगे
दो अल्फाज़ मुहब्बत के कानों में सुना दूँ तो...?

तेरी ख़ामोशी में शिकायत तो थी 'इंतज़ार'
तुझे आगोश में ले तेरे गम मैं चुरा लूँ तो...?

अबीर गुलाल तो होली में सब लगाते हैं 
मैं रंग मुहब्बत का, थोड़ा सा लगा दूँ तो ...?

                                         ........Mohan Sethi 'इंतज़ार'

                                                           



Friday 20 February 2015

उड़ अकेला ........



अब उड़ अकेला..... जा उड़ अकेला
न शब्द होंगे
न भाव होंगे
ना कविता का ठाँव
उजड़ा सा शहर होगा जैसे सूना गाँव !

रूखे से गीत होंगे
रूठे वो मीत होंगे
पेड़ सब ठूंठ होंगे
कहाँ से पायेगा अब छाओं  !

बिखरे से मोती होंगे
धागे दिल के टूटे होंगे
वो भी हम से रूठे होंगे
कोन बताए कहाँ सर कहाँ पाँव !

टूटे से ख़वाब होंगे
खामोशियों के राज होंगे
बहुत हम उदास होंगे
क्यूँ गाये कागा अब काओं काओं !

                                             ........मोहन सेठी 'इंतज़ार'


Monday 16 February 2015

दिल का उपवन ........


फिर मिली
मुझे उपवन में
सवेरे के नये सूरज की
खिलती किरणों की धूप सी !
दिल में एक पुरवाई चली !
भोर का उन्माद लिये
दिल के मोर ने
पंख फैला दिये !
नाच नाच
रंग दिखलाने को !
झुकी पलकों में
तिरछी आँखों से
जो नज़र मिली !
एक मुस्कान में
दबी हाँ छुपी मिली !
मोरनी दिल के
मोर के साथ आ मिली !!
                                 ........मोहन सेठी 'इंतज़ार'






Wednesday 11 February 2015

कुछ दूर कुछ पास ........



इतना तो पास रह कि तेरी खुशबु रहे फिज़ाओं में
और तेरा अक्स दिखता रहे मुझे दिल की घटाओं में

जा इतनी दूर कि मैं रहूँ पास होने के बहकावे में
और तुझे गलतफहमी रहे बहुत दूर हो जाने में

इस तरहें जी लेंगे दोनों भरम अपने अपने में
जिन्दगी यूँ ही बसर कर लेगे सपने सपने में

चलो बैठ कर नये समझोते की तहरीर लिख लेते हैं
थोड़ा दूर थोड़ा पास रहने की रिवायत शुरू कर लेते हैं

अपने अपने उजाड़ में आब-ए-चश्म से गुल खिला लेते हैं
आबरू अपनी बचा आशियाना अपना अपना बसा लेते हैं

चलो कुछ दूर कुछ पास रह लेते हैं .........

                                          ........मोहन सेठी 'इंतज़ार'












Monday 9 February 2015

उम्मीद ........


बेवजह देखता रहता हो जो
सामने से आती हुई
एक सुनसान पगडंडी को
बार बार .....
शायद इस उम्मीद से
कि कोई आयेगा....
हर बार उम्मीद की नज़र
घूमती है उस तरफ
तो लौट आती है निराश होकर
और फिर वही
बार बार दोहराना
और फिर देखना उधर
शायद इस बार वो हो ........
तो क्या पागलपन नहीं ये ?

और ... किसी को क्या पड़ी है
कि चल कर आये उस पगडंडी पर
और प्यास भुझा दे
उन आँखों की
कुछ राहत मिले
एक पगले को...

पगडंडी पर सड़क बनानी थी
जिस पर प्यार की गाड़ी चलानी थी
मगर राजनीति के झूटे वादे निकले
सपनों को लूटने के बहाने निकले
उस पगडंडी पर पौधे निकल आये हैं
विलीन हो चुकी पगडंडी जंगल में
मगर वोह पगला अभी भी
उसी उम्मीद भरी नज़र से
बार बार देखता है... ढूंडता है
उस खोई हुए पगडंडी को ......

और इस उम्मीद की हिमाकत तो देखो
टूटती ही नहीं.....

                                                ........मोहन सेठी 'इंतज़ार'



Friday 6 February 2015

विश्वास .......


उड़ तो पड़ा
मगर दिखता नहीं
कोई एक पेड़ सुहाना
जिसे मैं अपना दोस्त बना लूँ
तिनका तिनका बीन कर
एक घोंसला जिस पर बसा लूँ
जीवन उसके साथ बिता लूँ
अभी विश्वास नहीं किसी पर
क्या है उस पेड़ के जेहन में
कोई सर्प तो नहीं रहता उस पेड़ पर
जो रात अँधेरी में डस जाये मुझे !
क्या पेड़ बचा पायेगा मुझे
और मेरे गुलिस्तां को
उन अंधेरों और तूफानों से
या झुक जायेगा उनके सामने
और बिखरने देगा तिनका तिनका
मेरा घर बदहवासी में

मुझे विश्वास चाहिए
अगर तू है पेड़ मेरा
तो मुझे दिला भरोसा कि
मैं सुरक्षित हूँ तेरी बाँहों में
और तू नहीं टूटने देगा
मेरा ये विश्वास ....
                                    ........इंतज़ार
             

तेरे बिन ........


तेरे बिन जिन्दगी बेकार सी लगती है
बंद दुकानों की बाजार सी लगती है
सुनसान सा सारा जहाँ होता है
तेरा साया भी रोशनी में सोया होता है
मेरा दिल उदास कहीं खोया होता है
इंजन भी पटरी से उतर रोया होता है
तन्हाईयाँ यूँ ही नहीं डसतीं मुझे
ये तेरी बेरुखी का सिला होता है
यूँ ही नहीं क़सीदे लिखते हम तुझ पर
और ना ही हम शायर बने खुद बा खुद
टूटी कलम को तेरी याद में भिगोया होता है
मेरा दिल हरदम तेरी याद में खोया होता है
कैसे मनाएं और कैसे समझाएं उसको
कि चाँद निकलने का एक समां होता है
जरा सोच उसका क्या होगा
जिसका हर साँस तुझे देखने से रवां होता है

                                              ........मोहन सेठी 'इंतज़ार'










Thursday 5 February 2015

इंसान या चिड़िया........


 ("It is not possible to derive the age of a mature bird from its outer appearance. A five years old bird looks exactly the same as a 15 years old bird.")

देखो ये एक चिड़िया है
सिर्फ़ चिड़िया
ना मोटी ना पतली
ना जवान ना बुढ़िया
बस एक चिड़िया ....
कभी फल खा कर खुश
कभी कीट पतंगे
ना ये हँसती ना रोती
ना है उदास दिखती
बस सिर्फ़ गाकर
दुःख सुख है सुनाती
एहसासों की आग नहीं
अगर राह उड़ता मन भाया कोई
तो बस हो गया
कोई जीवन भर का साथ नहीं
बिछुड़ने पे कोई उदास नहीं
कोई इनका समाज नहीं
हर बार शुरू होती है एक नयी कथा
सारा दिन पंख चलाते हैं
मुश्किल से पेट भर पाते हैं
न कोई धर्म इनका
न पुनर्जन्म का डर इनका
बस जो है वो आज है इनका

इंसान को देखो
ज़रूरत से ज्यादा हैं खाते
हाथ पैर मुश्किल से हिलाते
मोटे मोटे हैं हो जाते
बच्चे से बूढ़े हो
बस प्यार को ढूँढ़ते ढूँढ़ते
सारा जीवन व्यर्थ हैं गवाते
कभी उदास तो कभी निराश
मगर कम ही खुश होते हैं

बताओ अगले जन्म में क्या ?
इंसान या .....
                                 .........मोहन सेठी 'इंतज़ार'






सुनो (पंजाबी)........150205


Wednesday 4 February 2015

सुनो ........150204


नज़र्बट्टू........


क्या वो तुम थीं
एक अप्सरा
जो सज संवर
गुलिस्तां से जा रही थी
कुछ दिन पहले ?
या वजह है मेरी गफ़लत !
तेरा हुस्न देख कर
फूल भी शर्मा गए
तेरी शान में
डालियाँ झुक झुक
आदाब करने लगीं
न निकला करो शहर में
सज धज के इस तरहां
मेरी सलाह मानो तो
लगा लिया करो
काले टीके का नज़र्बट्टू
कमबख्त चाँद की
नज़र आ पड़ी
तो बेचारा जल जायेगा !
और कहीं मेरी ही नज़र लग गई
तो मुझे फ़िक्र है
कि तुम्हारी तबीयत नासाज़ होगी
और शहर का मिजाज़ बिगड़ जायेगा !

                                    ........मोहन सेठी 'इंतज़ार'







बहते रहना ही तो जीवन है........


दुखों का समुद्र आ गिरा
बेचारी नदी पर
डूब गई.... दब गई
सांसें भी घुट गयीं
दर्द बेहिसाब दिये उसने

मगर ज़हरीला समुद्र अपने आप
छिन्न-भिन्न हो गया
कुछ आसपास तक पहुंचा
कुछ धरती ने सोख लिया
और नदी रोती बिलखती
बहती रही
आगे और आगे ....
अपने दोकिनारों के सहारे
फिर एक बार शांत धारा सी
ज़हर समेट बह निकली

बस एक ही सहारा था
उसका अपना दोकिनारा....
फिर एक दिन जब
ख़ुशी के समुद्र में जा समाई
तो जीवन सम्पूर्ण हो गया उसका !
हर नदी आखिर अपने समुद्र से
मिल ही जाती है
बशर्ते कि रहे बहती वो !
अगर निराशा और क्रोध में
अपने ही दोकिनरों को
टकरा टकरा कर तोड़ देती है
तो बिखर जाती है
और सोख ली जाती है मिट्टी में !

दोकिनारों के साथ
हर हाल में
बहते रहना ही तो जीवन है ....
                                          ........मोहन सेठी 'इंतज़ार'

  

Monday 2 February 2015

मिलके जाया करो ........


रात सपने में
तेरे कदमों की दबी चाल देखी
हवाएँ चुप नहीं रहतीं
महक हर तरफ़ उड़ा देती हैं
फ़िज़ायें सब्र नहीं करतीं
प्यार की बौछार करा देती हैं
तु चाहे भी चुपके से आना
तेरा दिल ही बागी होकर
धरकनों का शोर सुना देता है
ये जो चूड़ियां तूने पहनी हैं
ये तो हरदम तेरे आने की
खनक सुना देती हैं
चाहे जितना हौले से
तु कदम रक्खे
तेरे पैरों की छूवन से
ज़र्रे ज़र्रे में बहार आ जाती है
तेरे आने की सुराग मिल जाती है

छुप छुप कर क्या तलाश करती हो
मैं तो खुली किताब हूँ
हर पन्ना तेरे से शुरू हो
तेरे नाम पे ही ख़त्म होता है
इस तरहा दबे पांव
ना आया करो
आती हो अगर
तो मिलके जाया करो
कुछ बातें अपनी सुना
और कुछ मेरी सुन के जाया करो
                                         ........इंतज़ार









मेरी दोस्त ........


एक पेड़ हूँ
हराभरा लह्लहाता हूँ
तुमने तो मुझे देखा है
झूमते हुए इन मस्त हवाओं में
और तूफानों के बाद भी
देखते हो शांत खड़ा रहता हूँ
तुम नहीं जानते कितनी पीड़ा से
निकल के आता हूँ
कमर ही मोड़ देते हैं ये तूफान
मगर फिर सीधा खड़ा हो जाता हूँ
अब सीख गया हूँ छिपाना
अपने दुःख हरी पत्तिओं के पीछे

चिडियाँ मुझ पर
घोसला बना कर रहती हैं
चींटीयाँ तो मेरी जड़ में ही
सो जाती हैं
न जाने कितने जीव जंतु
मुझे मिलने आते हैं
और एक दूसरे का
पेट भर जाते हैं
मैं देखता हूँ वो युद्ध
अपने प्राणों की रक्षा में
असमर्थता को हारते हुए

और इन्सान तो
मेरी छाया में
हर दम सुस्ताते हैं
फिर भी मुझे
काट काट सताते हैं
भगवान भी निर्दयी देखो
मौसम के बहाने
मेरी पत्तीयाँ लुटा देता है
ये तो वक़्त है जो बदलता है
और नयी पत्तियाँ दे जाता है
एक बार फिर जी लेता हूँ
अपना बीता योवन ....
बस ये जीवन की पीड़ाएँ
और कुछ मीठे पल
वक़्त की रफ़्तार
में ना जाने कब गुजर जाते हैं

मैं हमेशा स्वाभिमान से
तना रहता हूँ
जानते हो क्यों ?
धरती मेरी दोस्त
हर दम मेरा पोषण कर
मुझ पर है उपकार करती
जड़ें पकड़ कर
रोक रखती है तूफानों में
ये न हो तो बता क्या होता
मेरा इस वीराने में
सिर्फ़ एक... बस एक
सच्चा दोस्त ही
तो चाहिए जीवन निभाने में
                                ........इंतज़ार