Friday 28 November 2014

अब रोना अच्छा लगता है....


बीते कल के ख़त पढ़ कर
रोना अच्छा लगता है
प्यार के टूटे हुए खंडरों में
लोट के आना अच्छा लगता है
तू नहीं तो कोई बात नहीं
तेरी याद में जीना अच्छा लगता है
कुछ लोग ऐसे भी होते हैं
जिन्हें कई जन्म
ना भुला पाना अच्छा लगता है
जितना मिला बहुत मिला
कुछ पल का प्यार भी
पाना अच्छा लगता है
पाने की कहानी सीमित है
खोने की कशिश जीने में
एक ज़माना लगता है
टूटे हुए पंखों  से
उड़ पाना अच्छा लगता है
तेरी पलकों से गिर जाना भी
शायद.... अब अच्छा लगता है
अब रोना अच्छा लगता है
                                             

Wednesday 26 November 2014

अब गाँधी कहाँ रहे हैं .....

चकोरी ने एक दिन
चाँद से पूछा
क्या ये चांदनी तुम्हारी है
चाँद ने सत्य का मार्ग अपनाया
कहा .....नहीं ये सूर्य का परावर्तन है
चकोरी ने गीत रोक दिया
चाँद पर इल्जाम लगाया
क्यों मुझे मंत्रमुग्ध बनाया
अब अगर चाँद चाहता तो
झूठ भी बोल सकता था
स्वार्थी होता तो
भ्रम को चला भी सकता था
चाँद ने सत्य का मार्ग अपनाया
और चकोरी का प्यार गवाया
लेकिन आज चाँद खुश है
कि उसने सत्य का मार्ग ही अपनाया

और अब गाँधी कहाँ रहे हैं .......
               ..........इंतज़ार

(परावर्तन=Reflection)

Wednesday 19 November 2014

modern India....


ग़जब हो गया
ये नया ज़माना
वाह रे बाबू
तेरा मुस्कुराना
फट से काम करना
न कोई रिश्वत
न कोई बहाना
मुस्कुराते मुस्कुराते
बस काम निबटाना
कहाँ गया वोह
रिश्वत खाना खिलाना

ना सड़कों पे गन्दगी
ना कहीं पान का निशान
जगह जगह लग गये हैं
अब सरकारी कूड़ा दान

पुलिस मुस्तैद है
गायब हैं गुंडे और सीटी बजाना
ये लो आया महिलाओं का ज़माना
पुलिस का काम है अब
सबको सुरक्षित बनाना
वाह रे वाह ये तो नया ज़माना

धुआं न मिट्टी
खुशनुमा है हवा
बिजली से चलती सब कारें यहाँ
ट्रक और बस सिर्फ़ गैस के सहारे
सोलर पैनल से सुसजित हैं छत हमारे
बिजली की कटौती अब नहीं होती
ठंडी हवा में अब आम जनता है सोती

सुसजित प्रशासन
ख़तम हुए सब राशन
पानी है हरदम गरम और ठंडा
नहाये जितना मर्जी
अब शावर में बंदा
फ़ेंक दिया हमने अब
बाल्टी और लोटा

मिलावट नहीं अब किसी चीज़ में
मिलता नहीं काली मिर्च में अब पपीता
मेरा भारत सबसे बेहतर
छोड़ आया पीछे देखो अमरीका
                             .......इंतज़ार







Tuesday 11 November 2014

चिडिया की कहानी .....



1.
पेड की ऊँची ऊँची 
मजबूत बाँहों में 
तिनका तिनका कर
माँ ने बसाया था घर
दिन रात बैठी अंडे गर्माती
बिन दाना पानी समाधी लगाती
जीवन का लक्ष्य यही था उसका
अंडे देना फिर चूजे बनाना
दाना खिला उनको उड़ना सिखाना
हैवानो की दुनिया में खुद को बचाना

2.
पंखो की झलक मुझे
नज़र आने लगी थी
सोचा जल्दी मुझे लग जाएँगे पर
ये सोच मेरा मन पुलकित हुआ 
फिर एक शाम ऐसा अचम्भा हुआ
लौटी नहीं माँ अँधेरा हुआ
बिलखती भूख से मैं रोने लगी
न जाने भयावह रात कैसे कटी
मगर माँ मेरी फिर कभी ना लौटी
अफवाह सुनी थी उड़ती उड़ती
मेरी माँ बिल्ली के हथे चढ़ी
बड़ा पडफडाई और गिडगिडाई 
सुना है वो मेरे लिये बड़ा थी रोई
सुबह तक डरी सहमी भूखी प्यासी
न पर थे मेरे के उड़ कहीं जाऊँ
गिरी अगर पेड से तो
गिर के मर ना जाऊँ
या बिल्ली होगी नीचे ताक लगाये
करती भी क्या कुछ समझ न आये 
बेबसी की थी ये मेरी कहानी
बिलख बिलख के मैंने
आवाज कई माँ को लगाई

3.
इतनी देर में 
एक चील थी आयी
मुझे देख वो जरा मुस्कराई
सोचा चलो किसी को तो तरस आयी
अब शायद मैं तो बच जाऊँ
फरिस्ता जो रब ने था भेजा
चोंच जो उसने मेरी तरफ बढ़ायी
सोचा मेरे लिये है शायद दाना लायी
चोंच तो उसकी थी एकदम खाली
झपट कर उसने मुझे चोंच में उठाली
मत पूछ कितनी पीड़ा थी जगी 
डर से मैंने अपनी आंखें थी मूंधी
जो हुआ था माँ को अब मेरी बारी आयी
माँ की तरहें एक वहशी के हाथों मेरी मौत आयी

कुछ दरिन्दे देखे थे उसने
इन्सान कहाँ अभी देखे थे उसने 
                                    ...........इंतज़ार 





















कहाँ हो ....


ढूंड रहा हूँ कब से तुझको
काल हो गया मिले तुझे 
शब्द सुनु तो चैन ख़ोज लूँ
मैं भी इस सन्नाटे में 

निकला ढूँढने जब में उसको 
कहीं निशाँ न मिला मुझे 
ढूंढ ढूंढ जब निराश हुआ तो 
देखा वोह है मेरे दिल में 
शव आसन में खामोश 
उदास निर्जीव

पूछा कुछ तो कहती
मुझ को कोसा होता दिलसे 
बददुआयें भी सुन के
चैन तो आ जाता मन में 

क्या करूँ कि चहकने लगे तू फिर 
सुनाने लगे तराने अपने 
जानता हूँ दर्द है जितना
अस्तित्व डूबा सैलाबों में

दिल ने कब्ज़ालिया है मुझको 
विवेक को मेरे बंधी बना
भावनाओं ने बहुत रुलाया है

सिर्फ़ भावनाएँ होंगी तो फिर 
तर्क का इंतकाल होगा ही 
समर्पण भी तो तभी है सम्भव 

दिल तो मैं कब से  दफना चुका था
न जाने कैसे ये कब्र में जी उठा
तुम को मिला और फिसल गया 
भावनाओं के कीचड़ में धंसता गया
वीवेक ने मेरे देखा इसे
चारसोबीसी करते हुए
तुरन्त पकड़ के इसको फिर
कब्र में सुलाया
सोते सोते ये बिचारा बहुत बिलखा
और बिलख बिलख रोया 
                                         ......इंतज़ार 






Monday 10 November 2014

मैं कौन....

कुछ ना
कुछ भी ना
खोजूँ मैं

ना मोक्ष
ना शंका

ना पूर्ण
ना अपूर्ण

ना गुरु
ना ज्ञान

ना दोस्त 
ना दुश्मन

ना अस्तित्व
ना समाप्ती

ना प्यार 
ना धोखा

ना रिक्त 
ना भराव

ना जीवन 
ना मृत्यु

ना आरंभ
ना अंत

ना शुन्य 
ना अनंत

ना नभ
ना तारे

ना धरती 
ना आसमान

क्यों कि मैं.." मैं " हूँ

                                          ....इंतज़ार 

Monday 3 November 2014

बचपन .....


कैसे लौटाउॅ जो बचपन था सादा
अकबरी दरबार का था मैं शहज़ादा
हर कोई मेरा दिल था बहलाता
गाली सिखा दी थी मुझको मोटी मोटी
जब मन करता तो सब को सुनाता
हर कोई मुझ को जान कर था उकसाता
तुतलाती जुबां से मैं फिर वोही गीत गाता
अंजान बेख़बर हरदम हँसता हसाता

यशोदा का लड्डू गोपाल था मैं
दूध और मक्खन की गंगा में नहाता
भैंस और गाये थीं अपनी हमारी
सुखराम माली रोज दूध दोह जाता

स्कूल ना जाने का बहाना बनाता
मैं अक्सर भाग जाता
या चुप चाप छुप जाता
वर्ना पेट दर्द का मैं नाटक रचाता

आमों के बाग़ थे हर कोने में वहीं पर
घूमते घुमाते कहीं से आम ढूंड लाता
सड़क के किनारे थे एक सौ पेड़ फैले
आम और जामुन कहीं शहतूत के मेले
यहाँ वहाँ इमली थी और बेरी की झाड़
छुट्टियों में यूँ ही समय बीत जाता था यार

वोह टयूबवेल की टंकी में कूद जाना
ठन्डे पाने से गर्मीयों में नहाना
लकीरों के खेल में किसी दीवार
या पत्थर का मुश्किल था बचपाना
बड़े होते होते हुआ बचपन पुराना
बड़ा ख़ूब था दोस्त वोह अपना ज़माना
                                        .....इंतज़ार





सिर्फ़ तेरे लिये ....


तेरे माथे का टीका
मुझे चाँद सा दीखा
तेरा ये गजरा
गहरी जुल्फों पे सजरा
तेरे माथे की बिंदिया
उड़ाये मेरी निंदिया

गालों पे लाली
पलकों पे रंग
आँखों में कजरा
नाक में नथनिया
गले में गलुबंद
और हीरों का हार
सब करें मुझ पे वार

कानो में बाली
तूने सजाली
हाथों में मेहंदी और
तेरा ये कमरबंद
हाय लिपटा तेरे अंग

चोली की कसन
साडी से झलके उजला बदन
चूड़ी की छन छन
तेरा बाजुबंद
कैसे चिपका कसके तेरे संग

तेरी अंगूठी की चमक
ये नाखूनों के रंग
पतली नाज़ुक उँगलियाँ
सोहना बदन
ये साडी का निखार
बजे दिल का सितार

पैरों में आलता का रंग
सुंदर लगे मेहंदी के संग
तेरा ये बिछुआ
तेरे चलने का ढंग
मारे बिच्छु का डंग 

उफ़ ये सृंगार 
दिल तो गया हार 

                   ......इंतज़ार 





Sunday 2 November 2014

जिंदगी


पहाड़ों की चोटिओं पर
पिघलती है बर्फ जब 
होता है जन्म एक धारा का 
लगती है बहने जो 
धीरे धीरे

पत्थरों और पेड़ों से 
करती खिलवाड़ सी
कभी पत्थर के ऊपर से 
कभी नीचे से
कभी अगल बगल से
निरंतर बढ़ती जाती है

जब गिरती है ऊँचाइयों से
 पकड़ती है गति वो 
 बिखरी धारा छोटी छोटी
संभलती सी एक होती   
बड़ी और गहरी होती जाती है

चंचल प्रवाह
पथरों से टकराना
पहाड़ों की ढलान पे
निर्विरोध आगे बड़ते जाना 
भयावह भवर का प्रदर्शन 
है उसका उन्माद ये 
यौवन का आभास ये 

जब बड़ी हो कर 
नदी का रूप लेती 
पहुँचती है मैदानों में
सतह पर समतल शांत बहती जाती है 
बचपन और लड़कपन बीता
जीवन का नया अध्याय होता आरंभ है 
सामने उसके एक लम्बा सफ़र 
जीवन की सच्चाई को
देखने का समझने का अवसर 

फिर मिलता है इन्सान उसे
दूषित कर जहर पीने को 
करता है विवश उसको
नियम और व्यवस्था का 
सबक सिखाता है उसको 
बाँध बना कर रोक देता है 
उसके उल्हास को
उसकी स्वतंत्रता को
काट कर उसको नहरें निकाल देता है
और उसका लहू 
किसी और को पिला देता है 

शोषण का शुभारम्भ  
अब जीवन उसके अपने हवाले नहीं
कोई और करता है निर्णय उसके लिये
और ये ताड़ना चलती है लगातार
हर पल कुछ और जहर 
घोल दिया जाता है उसमें 

सब सहती रोती चिल्लाती 
बहती रहती है वो 
आखिर एक दिन 
नजर आने लगता है
एक समन्दर जो उसका 
इंतज़ार करता है हरदम
अपने में समाने को
उसके हर मैल को धोने को
एक बार फिर बिन बाँध के
स्वतन्त्र हो जाने को

क्या ख़बर ये पानी फिर उडेगा
फिर जा पहुंचेगा पहाड़ों की ऊँचाइयों पर 
बर्फ गिरेगी लेकिन 
एक दिन फिर पिघलेगी
और शुरू होगा एक नया जीवन
आत्मा वोही जो 
समुद्र रूपी विशाल आत्मा में 
विलीन हो गए थी
लौट आयी 
आज फिर एक नयी यात्रा की शुरुआत 
इन्सान क्या तेरी भी ऐसी ही बात  ....

                                   ........इंतज़ार





Saturday 1 November 2014

मेरी दुआ


क्यों कहते हो अब दिल लगाने को
छोड़ आया हूँ कब से मैं हर बहाने को

हर शाम तेरी गली में घूमता हूँ
तेरी यादों के बबंडर से मिलके आने को

न गुल हैं.. न तू है.. न महक तेरी
गुलशन में आऊँ तो क्या होगी वजह मेरी

तेरी यादों के समन्दर में डूब जाता हूँ
अब तो सांसें भी लेना भूल जाता हूँ

एक बार तो बुलाया होता मुझ को
कभी ऐसे भी आज़माया होता मुझ को

मुमकिन है तुम रोयी होगी बिछुड़ के मुझ से
मैं तो रोने और हँसने में फ़र्क भूल जाता हूँ

मैंने तो सिर्फ़ तुझे अपना दिल दिखाया था
बता मैंने कब तेरा दिल दुखाया था

हर गम मैंने अपने ही दिल में छिपाया था
तुझको मैंने कब कोई शिकवा सुनाया था

जुदा न करना उसकी यादों के जख्म मेरे दिल से
मैं हर बार रब से ये ही दुआ क्यों मांग आता हूँ

                                             ......इंतज़ार