रात जब हम मिल बैठे थे
तमन्नाओं के साये में !
तेरे उलझे हुए गेसुओं को
सुलझाया था मैंने !
एक दिया प्यार का
जलाया था तुमने ऐसे !
आग फिर रूह को लग गयी कैसे !
जल गया सब कुछ
मिट गया वजूद जो कल तक था मेरा !
धुआं उस आग का
जम गया है मेरी सांसो में !
आग इतनी कि दिल बुझाता कैसे ?
क्या ख़बर थी कि झुलस जाऊंगा
वरना तेरे घर क्या आता ऐसे !
मैं होश में आऊँ तो आऊँ कैसे !
अब बता मैं वापस जाऊँ तो जाऊँ कैसे !!
......मोहन सेठी 'इंतज़ार'
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