Saturday 24 January 2015

दुखों के सर्प ........


दुःख सब निचोड़ लेते हैं
हर सुख का आभास मिचोड़ देते हैं
ये भला किस को नहीं डसते
सर्प हैं ना .......
डसने का मौका कहाँ छोड़ देते हैं
सबको अपने डसे का पता होता है
दूसरे के दुःख हम पीछे छोड़ देते हैं

अपनों को कौन राह में छोड़ता है
लेकिन जो समझते ही नहीं अपना
अक्सर वो चोराहे पे रास्ता मोड़ लेते हैं

दास्ताने मुहब्बत तो सब सुन लेते हैं
मगर ग़मों की कहानी
सुनाने का फ़ायदा नहीं
हर किसी की दास्ताँ-ए-गम अपनी होती हैं
दिल में नासूर सी छुपा रखी होती हैं

ना दिल को यूँ इतना भारी कर
दुखों के सर्प ना जाने
कितनी बार डसने आयेंगे अभी
ना इनकी फिक्र फिजूल कर
अगर करना है कुछ
तो आ मंजर-ए-इश्क़ कबूल कर
                                   ........इंतज़ार





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