लहलहाती वादियों का पहाड़ था मैं
तेरी रहमत का शुक्रगुजार था मैं
तु मुझे अपने प्यार की किरणों से सहलाती रही
और कभी ख़ुश हो कर
मुझ को अपने अमृत की बौछार से भिगाती रही
तभी तो मैं लहलहाता था
फिर क्यों एक दिन गर्जना करते करते
मुझ पे बिजली गिरा के तूने वार किया
जो अग्नीबान तुमने छोड़ा था छाती पे
जला के उसने सब कुछ ख़ाकसार किया
आखिरी जो साँसें थीं
वोह उड़ गयीं धूएँ का गुब्बार बन
तेरी तरफ़ आखिरी बोसे की आस लिये
जल गया आग में जब सब
बरसा दिया पानी तरस खा के तूने
पानी सर से यूँ जब ऊँचा निकला
और फिर तूने बर्फ का सफ़ेद लिहाफ़
मुझे ओड़ा दिया
सफ़ेद बर्फ़ीला समझोतों का परचम फ़हरा दिया
दुनिया की नज़रों से तूने
गुनाह को अपने दबा दिया
माना शातिर हो...पर क्या अपनी ही नज़रों से
अपने गुनाह को छिपा लिया ?
........इंतज़ार
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