कौन हिम्मत करे रुख मोड़ने का
कौन साहस करे पर्वत तोड़ने का !
तिमिर भी सहनीय है जब सबको (तिमिर=अँधेरा)
तिमिरारि बनने की चाह फिर किसको ! (तिमिरारि=सूर्य )
खिल-खिला रहे हैं सब ऊपर ऊपर
दर्द से टूटे जा रहे हैं सब भीतर भीतर !
कौन ललकारे इन रावणों को !
राम की राह तकते तकते !
सब सो रहे हैं जगते जगते !
ध्यान से देखो ...सब रो रहे हैं
इस धारा के प्रवाह में बहते बहते !!
........मोहन सेठी 'इंतज़ार'
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