Tuesday, 11 November 2014

कहाँ हो ....


ढूंड रहा हूँ कब से तुझको
काल हो गया मिले तुझे 
शब्द सुनु तो चैन ख़ोज लूँ
मैं भी इस सन्नाटे में 

निकला ढूँढने जब में उसको 
कहीं निशाँ न मिला मुझे 
ढूंढ ढूंढ जब निराश हुआ तो 
देखा वोह है मेरे दिल में 
शव आसन में खामोश 
उदास निर्जीव

पूछा कुछ तो कहती
मुझ को कोसा होता दिलसे 
बददुआयें भी सुन के
चैन तो आ जाता मन में 

क्या करूँ कि चहकने लगे तू फिर 
सुनाने लगे तराने अपने 
जानता हूँ दर्द है जितना
अस्तित्व डूबा सैलाबों में

दिल ने कब्ज़ालिया है मुझको 
विवेक को मेरे बंधी बना
भावनाओं ने बहुत रुलाया है

सिर्फ़ भावनाएँ होंगी तो फिर 
तर्क का इंतकाल होगा ही 
समर्पण भी तो तभी है सम्भव 

दिल तो मैं कब से  दफना चुका था
न जाने कैसे ये कब्र में जी उठा
तुम को मिला और फिसल गया 
भावनाओं के कीचड़ में धंसता गया
वीवेक ने मेरे देखा इसे
चारसोबीसी करते हुए
तुरन्त पकड़ के इसको फिर
कब्र में सुलाया
सोते सोते ये बिचारा बहुत बिलखा
और बिलख बिलख रोया 
                                         ......इंतज़ार 






No comments:

Post a Comment